Tuesday, June 5, 2012

New Chipko Movement launched by Uttrakhand Janmanch


                  The birth of second Chipko Movement                                                  

Uttrakhand Janmanch released a pamphlet on the eve of World Environment todayhere in Dehradun.This pamphlet says that all environment laws and forest act introduced from 1865 till today are anti people . These act and laws showa the greed of Governments from British Raj to Independent India.. British Government was less harsh to the traditional rights of hill people than that of present government. Present government had introduced the draconian forest act of 1980,which had completely throwh hillpeople out of forest management. The pamphet, a historical document of Janmanch , states the miserable conditions of Hill people of Uttrakhand. Janmanch says that first Chipko movement was  began by a lady from Reni,a remotest village of Chamoli district, roared, " Forest is ours, we have exclusive rights over it." Janmanch says after 147 years of first forest act the time has come to say," Forests are people's property and these should be given back to the people." Janmanch termed it second Chipko Movement or rebirth of Chipko Movement. Janmanch says the manifestostaement of second Chipko Movement is," Forests are our and we will take them back."
The originator of second Chipko Movement, Secretary General of Uttrakhand Janmanch says that to regain the ownership on forests we will have follow Gandhiji and his salt satyagrah. He says," Gandhiji had proven that tghe anti people laws can be made irrelevant and ineffective by the simple non violent instrument of civil disobedience. Todariya says that  the people of Uttrakhand will also follow this Mantra of Gandhiji. We have simple mantra for the people of Uttrakhand . We will begin "Civil Disobedience of Environment laws." Like salt march of Gandhiji the people of Uttrakhand would march from Dewal to higher Himalayas to collect the natural herbs and sell these herbs in open market. We will show that the real owner of the forests are people by this "Herbal march."
                                                  




                                                         उत्तराखंड जनमंच

              मनुष्य विरोधी पर्यावरण कानून रद्द करो


उत्तराखंड जनमंच आज विश्व पर्यावरण दिवस को काला दिवस  के रुप में मना रहा है। क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार ने जल और जंगल से पहाड़ के गांवों से छीनकर उन पर कब्जा जमा लिया। अंग्रेजों ने जल और जंगल छीनने का जो सिलसिला शुरु किया था वह आजाद भारत में भी जारी है। आज हालात इतने खराब हो गए हैं कि पहाड़ के कई गांव आदमखोर बाघों के हमलों से त्रस्त हैं तो तराई में आम लोग हाथियों के हमलों में मारे जा रहे हैं। पहाड़ की खेती सुअर और बंदरों के कारण पूरी तरह से बर्बाद हो गई है।पार्कों और अभयारण्यों के नाम पर गांव के लोगों को उजाड़ा जा रहा है। उनके चरान चुगान और चारे के बुनियादी अधिकार छीन लिए गए हैं। जंगलों से जड़ी -बूटी को एकत्र कर उसे खुले बाजार में बेचने के अधिकार से गांव वालों को वंचित कर दिया गया है। जंगलों और वन्य जंतुओं की रक्षा के नाम पर पहाड़ के आदमी का जीना हराम कर दिया गया है। पहाड़ की विकास योजनायें,पनबिजली प्रोजेक्ट पर्यावरण कानूनों के नाम पर रोक दिए गए हैं। एक सुनियोजित साजिश कें तहत पर्यावरणवादियों, केंद्र और राज्य सरकार, वन विभाग की नौकरशाही,नेताओं और विदेशी पैसे पर पल रहे गैर सरकारी संगठनों के गठबंधन ने पर्यावरण कानूनों की आड़ में वनवासियों को जंगलों से खदेड़ दिया है। समूचे पहाड़ में जनता के जीवन निर्वाह के परंपरागत साधनों पर सरकारी संस्थाओं और बिचैलियों ने कब्जा कर लिया है। आम ग्रामीणों के पास आमदनी का कोई जरिया नहीं बचा है।
दूसरी ओर वन विभाग,वन्यजंतु विभाग वनों और वन्य जंतुओं की रक्षा करने में विफल साबित हुए हैं। जंगलों की आग अब काबू से बाहर हो गई है। लकड़ी,वन्य जंतुओं के अंगों और जड़ -बूटी की तस्करी बढ़ रही है। पूरे वन विभाग में भ्रष्टाचार की सड़ांध आ रही है। जनता और विदेशों से मिलने वाले खरबों रुपये हर साल अफसरों और नेताओं के पेट में जा रहे हैं। ऐसे में उत्तराखंड की धरती से एक बार फिर नया चिपको आंदोलन शुरु हो गया है। लगभग 40 साल पहले चमोली जिले के सीमांत गांव रेणी में पर्वत पुत्री गौरा देवी ने सिंह गर्जना कर कहा था, ‘‘जंगल हमारे हैं, इन पर हमारा हक है।’’ चिपको आंदोलन के इसी नारे को एक बार फिर जनमंच दोहरा रहा है, ‘‘ जंगल हमारे हैं इन्हे हमें वापस दो’’ यह पर्वत गर्जना है। उत्तराखंड जनमंच का कहना है कि सन् 1865 में जब पहला वन कानून बना था तब ब्रिटिश सरकार ने जबरन जनता से उनके जंगल छीने थे। यह सब जंगलों के बेहतर प्रबंधन के नाम पर किया गया था। लेकिन इन 147 सालों में सरकार जंगलों की हालत बेहतर करने में नाकाम रही है। उल्टे उसने जंगलों को नष्ट कर उन्हे अपने अफसरों, नेताओं और ठेकेदारों,तस्करों के लालच का शिकार बना दिया है। इसलिए विश्व पर्यावरण दिवस को उपनिवेशवादी वन नीति के विरोध में काला दिवस के रुप में मनाकर    उत्तराखंड जनमंच की मांग है कि जंगल जनता की परंपरागत संपत्ति हैं। उन्हे जनता को वापस लौटाना होगा। जनमंच सारे पर्यावरण कानूनों को उपनिवेशवादी सोच और लालच से प्रेरित मानता है इसलिए उनको रद्द करने की मांग करता है। साथ ही यह ऐलान भी करता है कि गांव के लोग जनविरोधी पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करने के लिए ‘‘पर्यावरण कानून अवज्ञा आंदोलन’’ छेड़ेंगे। इसके तहत आम लोग गांधीजी के नमक सत्याग्रह से प्रेरणा ग्रहण कर पर्यावरण कानून तोड़ेंगे और जंगलों से जड़ी बूटी एकत्र कर उन्हे अंतर्राष्ट्रीय दरों पर खुले बाजार में बेचेंगे। यह अभियान अगले साल से चमोली जिले के देवाल विकासखंड से शुरु किया जाएगा। जनमंच का मानना है कि ग्राम पंचायतें और वन पंचायतें ही वनों की प्राकृतिक स्वामी हैं और वे ही उनका बेहतर प्रबंधन और देखभाल कर सकती है। 

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