Saturday, May 26, 2012

Uttrakhand Janmanch's vision on Dams & Hydro Projects


        ये पहाड़ के पानी और जवानी दोनों का सवाल है

एक राज्य के रुप में उत्तराखंड का दुर्भाग्य रहा है कि वह मैदानी क्षेत्रवाद के हमलों और घरेलू जयचंदों के भितरघात की दोहरी साजिश का शिकार रहा है। गंगा की अविरलता के नाम पर मैदानी राज्य और उनके धार्मिक कट्टरपंथी, कांग्रेस,भाजपा और समाजवादी पार्टी एक होकर पहाड़ के खिलाफ तलवारें निकाले हुए हैं तो घर के अंदर पर्यावरण के नाम पर विदेशी फंड से पोषित अपनों ने ही कातिल छुरियां निकाल रखी हैं। एक ओर भाजपा समेत संघ परिवार के सारी भगवा ब्रिगेडें धर्म और आस्था के नाम पर यूपी,बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान में राममंदिर मुद्दे की तरह उन्माद फैलाने पर आमादा हैं तो दूसरी ओर उत्तराखंड के धंधेबाज सर्वोदयी और कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी पर्यावरण की धुन छेड़कर उनका साथ दे रहे हैं। साॅफ्ट हिंदुत्व का खेल खेलने में लगी कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री स्वामी स्वरुपानंद के जरिये प्रोजेक्ट विरोधी मुहिम को अंजाम दे रहे हैं। इन सबके बीच गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी पर पहाड़ के लोगों के हक का सवाल पीछे धकेल दिया गया है। कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि कुल 6800 करोड़ रु0 की आमदनी वाला उत्तराखंड राज्य बिना पैसे के अपने कर्मचारी-अफसरों का 10,386 करोड़ रु0 का वेतन भत्ता और लगभग 5000 करोड़ रु0 के योजना व्यय के लिए 16000 करोड़ रु0 कहां से लाएगा? उत्तराखंड को आर्थिक रुप से दिवालिया बनाने की पूरी तैयारी कर दी गई हैं। इसका सीधा असर रोजगार के अवसरों पर होगा। जिस सरकार के पास वेतन देने के लिए पैसा नहीं होगा वह नए कर्मचारियों की भरती कैसे करेगी? यह पूरा खेल उत्तराखंड को उग्रवाद के रास्ते पर धकेल देगा।
उत्तराखंड जनमंच स्पष्ट रुप से यह मानता है कि गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी की हर बूंद पर पहाड़ के लोगों का हक है।पर्यावरणवादियों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और यशलोलुपता के कारण पहाड़ के लोगों को 1980 से वनों पर अपने मालिकाना हक को नहीं बल्कि वन संपदा के लाभों से भी हाथ धोना पड़ा है। आज जो लोग पनबिजली प्रोजेक्टों का विरोध कर रहे हैं वे ही तब जनविरोधी वन कानून का समर्थन कर रहे थे। क्या उत्तराखंड के वनों पर सरकारी कब्जे के लिए जिम्मेदार उन पर्यावरणवादी नेताओं को क्षमा किया जा सकता है? यदि वन उपज और जड़ी बूटियों पर गांव के लोगों का हक होता तो पहाड़ के गावों की काया कल्प हो गई होती। अब एक बार फिर वही खेल शुरु हो गया है। परदे के पीछे से जो एनजीओ मदद कर रहे हैं उनके पास क्रिश्चयन एड, एक्शन एड और आॅक्सफेम के डाॅलरों की खनक है। लेकिन इसकी कीमत उत्तराखंड को जल पर अपने परंपरागत अधिकार को गंवाने में चुकानी पड़ेगी। 
 संविधान के अनुसार जल राज्य सूची का विषय है। यानी जल पर कानून बनानेका अधिकार राज्य को है। लेकिन केंद्र सरकार ने एक झटके में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। राष्ट्रीय नदी घोषित होते ही गंगा और उसकी सारी सहायक नदियों के बारे में कानून बनाने का अधिकार केंद्र के पास चला गया। इसके बाद गंगा बेसिन अथाॅरिटी बनाई गई और उसमें उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों का कोई भी प्रतिनिधि नहीं रखा गया। उल्टे उसमें ऐसे लोग रखे गए जिनका पहाड़ी क्षेत्र या गंगा और उसकी सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जल संरक्षण या पर्यावरण संरक्षण पर कोई काम ही नहीं था।गंगा बेसिन अथाॅरिटी में संघ परिवार की भगवा ब्रिगेड से जुड़े महंत और मैदानी राज्यों के हितों के रक्षा करने वाले पर्यावरणवादी सदस्य बना दिए गए। उस पर तुर्रा यह कि गंगा बेसिन अथाॅरिटी के नियम कानून में कहीं भी पर्यावरण का विषय नहीं है। लेकिन उत्तराखंड की बिजली प्रोजेक्टों के मामले में उसे नियामक संस्था बना दिया गया। कमजोर मुख्यमंत्रियों ने कभी यह आवाज नहीं उठाई कि केंद्र सरकार सरासर संघीय ढ़ांचे का उल्लंघन कर रही है। दिलचस्प बात यह है कि खुद को पर्यावरण और प्रगतिशीलता का चैंपियन घोषित करने वाले नेताओं ने संघीय ढ़ांचे पर किए जा रहे इन हमलों का विरोध नहीं किया। इनमें से किसी ने भी अथाॅरिटी में गैर पहाड़ी प्रतिनिधि नामांकित करने का कभी विरोध नहीं किया। जाहिर है कि उत्तराखंड के निवासी होने के बावजूद इन लोगों की निष्ठा पहाड़ और उसके लोगों के प्रति नहीं है। ये लोग भले ही मंचों पर दिखाई दे रहे हों पर ये अपने मालिकों को गंगा बेसिन अथाॅरिटी का मेंबर बनाने के काम में लगे हुए हैं। केंद्र सरकार ने संघीय ढ़ांचे के खिलाफ जाकर गंगा और उसकी सहायक नदियों के मामले मे तो हस्तक्षेप किया ही साथ ही उत्तरकाशी से आगे का इलाका इको सेंसेटिव जोन घोषित कर राज्य सरकार को उसकी औकात बता दी। देश के लगभग सारे राज्य अपने अधिकारों को लेकर मुखर हैं केवल उत्तराखंड के राजनीतिक दल और नेता ही चुप रहते हैं। उत्तराखंड के ये कथित बुद्धिजीवी ही केंद्र सरकार से लेकर विदेशों तक राज्य के मामलों में बाहरी दखल को आमंत्रित करते रहते हैं। महज इसलिए इनमें से कुछ को पुरस्कार चाहिए,कुछ को एनजीओ से पैसा चाहिए ।
गंगा की अविरल धारा दो प्रोजेक्ट रोक रहे हैं। टिहरी बांध और गंग नहर। कानपुर,इलाहाबाद और बनारस में जिस गंगा पर शोर मचाया जा रहा है वह दरअसल गंगा तो है ही नहीं। वह तो नजीबाबाद और बिजनौर जिलों के नालों का पानी है। हरिद्वार में गंगा का 98 प्रतिशत पानी गंग नहर में चला जाता है और गंगा की मूलधारा का नाम भी बदलकर नीलधारा कर दिया गया है। समूची गंगा पश्चिमी यूपी और मध्य यूपी की सिंचाई के लिए खत्म कर दी गई है। हरिद्वार में गंगा की अविरलता कोई सवाल नहीं है। जबकि वहां पूरी गंगा का ही कत्ल कर दिया गया है। एक भी साधुसंत या उत्तराखंड का कथित पर्यावरणवादी ठेकेदार यह नहीं कहता कि हरिद्वार में नीलधारा में कम संे कम 26 प्रतिशत पानी छोड़ा जाय ताकि गंगा की मूलधारा में पर्याप्त पानी रहे और उसकी प्राकृतिक साफ-सफाई हो सके।लेकिन ये सारे लोग गंगा की नहीं बल्कि गंग नहर के पानी की लड़ाई लड़ रहे हैं। गंगा की अविरल धारा टिहरी बांध में रुकी है। उसे तोड़ने की मांग कोई साधुसंत नहीं करता। जनमंच चाहता है कि गंगा की अविरलता के लिए टिहरी बांध को तोड़ दिया जाना चाहिए।
हमारा मानना है कि गंगा की अविरलता का आंदोलन दरअसल पहाड़ के लोगों को गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी के उपयोग के अधिकार को वंचित करना है। अभी इसका दूसरा चरण सामने आया है। तीसरे चरण में गंगा की पवित्रता के नाम रिवर राफ्टिंग पर बैन लगाना है और चैथे और निर्णायक चरण में पहाड़ के लोगों को गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी से सिंचाई और पेयजल की सुविधाओं से वंचित करना है जिस दिन यह पूरा हो गया उस दिन गढ़वाल के पहाड़ पूरी तरह से बरबाद और निर्जन हो जायेंगे। दरअसल मैदानी राज्यों और उसके बुद्धिजीवियों, धार्मिक कट्टरपंथियों,कांग्रेस,भाजपा व सपा ने पहाड़ के खिलाफ जलयुद्ध छेड़ दिया है। इसलिए बिजली प्रोजेक्टों का सवाल जल अधिकार और संघीय ढ़ांचे पर हमले का प्रश्न है। जनमंच यह भी स्पष्ट करना चाहता है कि वह उत्तराखंड में निजी कंपनियों को पनबिजली क्षेत्र में लाए जाने का विरोधी है। हम उन्ही प्रोजेक्टों को बनाए जाने के हिमायती हैं जिनमें राज्य का 50 प्रतिशत हिस्सा हो। जनमंच लोगों की इच्छा के खिलाफ बनाए जा रही किसी भी पनबिजली प्रोजेक्ट का विरोधी है। उसका मानना है कि कोई प्रोजेक्ट तभी बनना चाहिए जब 70 प्रतिशत विस्थापित और प्रभावित इसके लिए सहमति व्यक्त करें। जनमंच हर प्रोजेक्ट में प्रभावितों को शेयर होल्डर बनाए जाने का हामी है। जनमंच का मानना है कि किसी भी नदी में प्रोजेक्ट बनाए जाने पर उसके मूल प्रवाह में सर्दियों के समय के जल प्रवाह के बराबर पानी हर समय छोड़ा जाना चाहिए। साथ ही विष्णुप्रयाग प्रोजेक्ट बनाने वाली कंपनी जेपी ग्रुप को 26 प्रतिशत पानी छोड़ने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। जनमंच श्रीनगर जल विद्युत प्रोजेक्ट की ऊंचाई अनधिकृत रुप से बढ़ाए जाने का विरोध करता है तथा सरकार से मांग करता है कि श्रीनगर प्रोजेक्ट कंपनी के खिलाफ अवैध खनन के मामले को रफा-दफा करने वाले अफसरों और नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की जाय । इस कंपनी से 80 करोड़ रु0 की वसूली तत्काल कर खनन की जांच सीबीआई को सौंपी जानी चाहिए। जनमंच चाहता है कि नदी बचाओं आंदोलन में शामिल सभी एनजीओं ,उनके मालिकों और समर्थकों की बीस साल में जोड़ी गई संपत्ति और खर्चों की जांच कैग से कराई जाय।
जनमंच का मानना है कि उत्तराखंड की कुल क्षमता का यदि 60 प्रतिशत भी बिजली बनाने में उपयोग हुआ तो राज्य को 50 प्रतिशत हिस्सेदारी और 12 प्रतिशत रायल्टी से 90 अरब रु0 की आमदनी होगी। इसका यदि पचास प्रतिशत भी यदि जन कल्याण में लगा तो पहाड़ के छह लाख परिवारों से एक-एक युवा को नौकरी मिल सकती है या पहाड़ के साढ़े सात लाख परिवारों में से हर परिवार को हर माह दस हजार रु0 का जीवन निर्वाह भत्ता मिल सकता है। जनमंच पहाड़ की इसी समृद्धि के लिए बिजली प्रोजेक्टों का समर्थन कर रहा है। हमारा माना है कि एक राज्य के रुप में हमारे पास दो ही विकल्प है। या तो हम हर घर तक शराब पहंुचाकर कर राजस्व बढ़ायें या फिर बिजली बनाकर युवाओं के लिए लिए रोजगार का रास्ता खोलें। हमने यदि यह रास्ता भी गंवा दिया तो पहाड़ के नौजवान भी किसी दिन हाथ में बंदूक उठा लेंगे और हमारे पूरे समाज को छत्तीसगढ़ और झारखंड की तरह खून के दरियाओं से होकर गुजरना पड़ेगा। विकल्प साफ हैं ‘‘शराब या पानी, नौकरी या बंदूक’’। चुनाव पहाड़ के लोगों को करना है। कुछ एनजीओ और उनके टुकड़ों पर पल रहे बुद्धिजीवी अपना एजेंडा हम पर नहीं थोप सकते।
उत्तराखंड जनमंच निशंक सरकार के खिलाफ और उसके बाद भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का हिस्सा रहा है । हम सार्वजनिक और निजी जीवन में गलत साधनों का प्रयोग न करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इसलिए जनमंच के सारे पदाधिकारी अपने निजी खातों,आय के साधनों,खर्चों और संगठन के खाते की जांच किसी भी एजेंसी से कराए जाने के लिए हर समय तैयार हैं।

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